नई दिल्ली। कोलकाता में ममता बनर्जी की महारैली विपक्षी एकजुटता का संकेत तो दे गई, सरकार के लिए चुनौती भी पेश कर गई, लेकिन यह मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के लिए शुभ संकेत है या नहीं, इस पर सवाल भी छोड़ गई। दरअसल भाजपा और मोदी विरोध में एकजुटता की कवायद के बीच ही अंदरूनी खींचतान और ज्यादा तेज हो गई है। यह स्पष्ट दिखने लगा है कि कथित महागठबंधन को कांग्रेस के साथ साथ तृणमूल और बसपा भी अपनी ओर खींचने लगी है। शायद लोकसभा चुनाव से पहले ही यह साबित करने की कोशिश होने लगी है कि सबसे ज्यादा स्वीकार्य नेतृत्व उनके पास है। और यही कारण है कि इनमें से किसी भी दल की ओर से अब तक किसी की प्रधानमंत्री दावेदारी पर मुहर नहीं लगाई गई है।

कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में ममता की अपील पर जो सभा हुई है वह कुछ मायनों में चार पांच महीने पहले कांग्रेस के नेतृत्व में बुलाई गई विपक्षी दलों की रैली से अलग भी थी और अहम भी। दरअसल पेट्रोलियम उत्पादों में महंगाई के खिलाफ बुलाई गई उस सभा में न तो ममता आई थीं, न अखिलेश, न केजरीवाल और न ही कई अन्य बड़े विपक्षी नेता। दरअसल वह भारत बंद कांग्रेस-वाम और कुछ छोटे क्षेत्रीय दलों की एकजुटता का संकेत देकर खत्म हो गया था। उसका नेतृत्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया था।

ममता ने थोड़ी और ताकत दिखाई और इसमें सपा अध्यक्ष अखिलेश खुद आए, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और दिल्ली के मुख्यमंत्री भी शामिल हुए और राकांपा नेता शरद पवार जैसे दिग्गज व द्रमुक अध्यक्ष स्टालिन भी दिखे। कश्मीर से फारूख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला की भी मौजूदगी रही। साथ ही भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा और पूर्व नेता यशवंत सिन्हा भी नजर आए। जाहिर है कि कांग्रेस को यह दिखाने में सफल रहीं कि उनकी स्वीकार्यता बड़ी है। उत्तर प्रदेश में जिस तरह सपा और बसपा ने कांग्रेस को अगूंठा दिखाया, उसके बाद ममता के इस शक्ति प्रदर्शन का असर सीटों के बंटवारे पर हो तो आश्चर्य नहीं।

वहीं अब नजरें उत्तर प्रदेश पर टिकी हैं जहां बहुत जल्द मायावती और अखिलेश भी ऐसी ही विपक्षी एकजुटता रैली के जरिए अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। गौरतलब यह है कि बसपा-सपा गठबंधन और उसके बाद रालोद को शामिल करने की कोशिशों में मायावती यह साबित कर चुकी हैं कि उनकी पार्टी बड़ी है। बात यहीं तक नहीं रुकती है। मायावती अकेली ऐसी नेत्री हैं जिसके पास बाकी सभी नेता आते हैं, वह नहीं जाती हैं। ममता की तृणमूल के मुकाबले पूरे देश में उनकी पार्टी का जनाधार है और छोटे स्तर पर ही सही वह इसका दावा कर सकती हैं कि उत्तर प्रदेश से बाहर पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में भी वह साथी दलों को मदद पहुंचा सकती हैं।

ऐसे में देखने की बात यह होगी कि उत्तर प्रदेश की संभावित रैली में वह कितनी स्वीकार्यता दिखा पाएंगी। क्या वह कांग्रेस नेतृत्व को अपने दरवाजे तक ला पाएंगी। दरअसल उत्तर प्रदेश मे कांग्रेस के अकेले छूटने और फिर शनिवार को ममता बनर्जी की ओर से यह संकेत दिया जाना कि भाजपा के खिलाफ जो दल जहां मजबूत है उसे मौका दिया जाना चाहिए, यह कांग्रेस के लिए खतरनाक है। यही मापदंड हर राज्य में अपनाया गया तो कांग्रेस के पंजे से हाथ देश छूट सकता है।
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