नई दिल्ली I रिजर्व बैंक की स्वायत्तता और केन्द्र सरकार के उसमें कथित हस्तक्षेप को लेकर इन दिनों बहस चल रही है. इसी बहस पर 2014 से 2017 तक रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर रहे आर. गांधी से बात की गई. उन्‍होंने कहा कि आरबीआई की बचत में से सरकार को हिस्‍सा देने पर चार साल पहले तत्‍कालीन गवर्नर रघुराम राजन ने एक फॉर्मूले की बात कही थी. लेकिन सरकार ने इससे इनकार कर दिया था. गांधी ने आगे कहा कि अगर सरकार की हर मांग मान ली जाए तो फिर रिजर्व बैंक की जरूरत ही क्‍या है.

रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को लेकर इन दिनों चल रही बहस पर आपका क्या कहना है?
-यह कोई नई बहस नहीं है. यह दृष्टिकोण का फर्क है. सरकारें बहुत से मुद्दों पर अल्पकालिक दृष्टि से सोचती हैं जबकि केंद्रीय बैंक को मध्यावधि और लंबी अवधि को ध्यान में रखकर चलना होता है. ऐसे में किसी मुद्दे पर दोनों के दृष्टिकोण में या किसी क्षेत्र विशेष को प्राथमिकता देने के विषय में मतभेद हो सकते हैं. मतभेद होना एक तरह से स्वस्थ स्थिति का संकेत है. निर्णय, बहस और विचार विमर्श के बाद हों तो अच्छे होते हैं. इसीलिए इस समय चल रही बहस को मैं गलत नहीं मानता.


चर्चा है कि केंद्र सरकार रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा सात का इस्तेमाल कर केंद्रीय बैंक को निर्देश देने का इरादा बना चुकी है. आपका क्या कहना है?


-दरअसल, इस धारा के इस्तेमाल की चर्चा ही दुर्भाग्यपूर्ण है. मैंने पहले भी कहा है कि रिजर्व बैंक और सरकार के बीच बातचीत व विचार-विमर्श का सिलसिला बना रहे तो इसकी नौबत नहीं आएगी. इसकी चर्चा होना ही इस बात का संकेत है कि इस सिलसिले में कुछ दिक्कतें आई हैं. अगर बातचीत हो तो हर मुद्दे का समाधान निकल आएगा. जहां तक रिजर्व बैंक के पास आरक्षित धन से अधिक हिस्सा मांगने का मुद्दा है, रिजर्व बैंक अपना वार्षिक हिसाब-किताब पूरा कर लेने के बाद अपनी बचत में से सरकार का हिस्सा उसे देता रहता है.

दरअसल, चार साल पहले तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन ने पहल की थी और कहा था कि यह हस्तांतरण किसी फॉर्मूले/मॉडल के आधार पर होना चाहिए. पर उस समय सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी. मजे की बात यह है कि आज यह मांग सरकार की तरफ से उठ रही है. मुझे लगता है कि रिजर्व बैंक भी इस पर तैयार हो जाएगा. लेकिन इस फॉर्मूले के तत्वों और सिद्धांतों को तय करने के लिये बातचीत करनी होगी. एक बार फॉर्मूला तय हो जाएगा तो रिजर्व बैंक उसपर अमल करेगा.


रिजर्व बैंक निदेशक मंडल की बैठक 19 नवंबर को प्रस्तावित है. यह बैठक कितनी सार्थक हो सकती है.


-यह जरूरी नहीं है कि सभी मुद्दों का समाधान एक ही बैठक में हो जाए. उसमें कुछ मुद्दों को आगे के लिए टाला जा सकता है, ताकि शांति के साथ उनका समाधान निकाला जा सके. मुझे पता चला है कि दोनों पक्षों (सरकार और रिजर्व बैंक के बीच) में ठीक-ठाक संवाद हुआ है और कुछ सहमति बनी है. ऐसा नहीं है कि सभी मुद्दों को एक ही बार में सुलझा लिया जाएगा. कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन्हें प्राथमिकता दी जा सकती है. जैसे कि एनबीएफसी के सामने कर्ज की समस्या का मुद्दा है.


 क्या रिजर्व बैंक को बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था की जरूरतों के बारे में अधिक उदार होना चाहिए?

-उदार होने का यह मतलब यह नहीं है कि सरकार जो भी मांगें रखे, वह सब मान ली जाएं. अगर सोच इस तरह की हो तो फिर केंद्रीय बैक की जरूरत ही क्या है. रिजर्व बैंक को सभी पक्षों की बात सुनकर उनका आकलन करना होता है और वह वही फैसला करता है, जो पूरी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होता है. हो सकता है, इस बार ऐसे कई मुद्दे एक साथ आ गये हों जिन पर सरकार और रिजर्व बैंक के बीच मतभेद हों और जिसकी वजह से एक-दूसरे के प्रति सोच कुछ ज्यादा गहरा गई हो.


प्रमुख वैश्विक मुद्रा डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर में हाल में आई गिरावट पर आपका क्या कहना है.

-रुपये की विनिमय दर आयात-निर्यात और चालू खाते के हस्तांतरणों पर निर्भर करती है. यह इस बात पर भी निर्भर करती है कि देश निर्यात बाजार में कितना प्रतिस्पर्धी है. रुपये में दैनिक आधार पर उतार-चढ़ाव होते रहते हैं. मेरी राय में रुपये में हाल की गिरावट को लेकर चिंता की कोई बात नहीं है. रुपया इस समय जिस स्तर पर है वह संतोषजनक है, क्योंकि पिछली कुछ तिमाहियों में मजबूत रुपये की वजह से हमारा निर्यात बढ़ नहीं पा रहा था.

भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद अच्छी है. आने वाले समय में भी भारत की आर्थिक वृद्धि तेज रहने की उम्मीद है. रिजर्व बैंक को अब मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने का सांविधिक दायित्व मिला हुआ है. इसलिये उम्मीद की जाती है कि तीव्र आर्थिक वृद्धि के साथ मुद्रास्फीति में भी वृद्धि का अंतर्निहित जोखिम कम होगा और भारतीय अर्थव्यवस्था स्वस्थ ढंग से तीव्र वृद्धि की राह पर बनी रहेगी.
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